-सन्तोष कुमार सिंह
रोज निहारूँ नभ में तुझको,काले बादल भैया।
गरमी से सब प्राणी व्याकुल,
रँभा रही घर गैया।।
पारे जैसा गिरे रोज ही,
भू के अन्दर पानी।
ताल-तलैया पोखर सूखे,
बता रही थी नानी।।
तापमान छू रहा आसमां,
प्राणी व्याकुल भू के।
बिजली खेले आँख मिचोली,
झुलस रहे तन लू से।।
जल का दोहन बढ़ा नित्य है,
कूँए सूख गए हैं।
तुम भी छुपकर बैठे बादल,
लगता रूठ गए हैं।।
गुस्सा त्यागो, कहना मानो,
नभ में अब छा जाओ।
प्यासी नदियाँ भरें लबालव,
इतना जल बरसाओ।।
छप-छप, छप-छप बच्चे नाचें,
अगर मेह बरसायें।
हर प्राणी का मन हुलसेगा,
देंगे तुम्हें दुआयें।।
-सन्तोष कुमार सिंह
अच्छा लगा मेघ का आह्वान ..एकदम सरल और प्रवाहमयी
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